मंगलवार, 22 जून 2010

कम से कम इकबार प्रभू

बोलो कबतक सहन करें हम मंहगाई की मार प्रभू .तुम्ही निकालो राह नई कम से कम इक बार प्रभू ।
अब अतिथि से नहीं पूछता मेजबान भी चाय कभी ,शक्कर जब से हुई पचास की चाय हुई दुशवार प्रभू ।
नंगों भूखों का क्या कहना सहमे पैसे वाले भी ,जाने कैसे चला रहें हैं लोग बड़ा परिवार प्रभू ।
नेताओं के रोज बयान आते हैं अक्सर टीवी पर ,सुबह शाम लगते हैं इनके देखो तो दरबार प्रभू ।
अखबारों में होड़ लगी है खबर मसालेदार छपे ,मंहगाई पर बड़े -बड़े लेखों की है भरमार प्रभू ।
एक तरफ तो कहते नेता भ्रष्टाचार मिटायेंगे ,और दूसरी तरफ लगाते नोटों के अम्बार प्रभू ।
प्रजातंत्र की परिभाषा में आम आदमी भ्रमित है ,सरकारों की प्रजा है या प्रजा की सरकार प्रभू ।
गूंगे ,बहरे लोग हो गए और आँख से अंधे भी ,अब तो इनको आस तुम्हारी कब लोगे अवतार प्रभू.

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