गुरुवार, 2 सितंबर 2010

३८-रामायण

                                         ( ८३ ) 
गए राम वन में तो क्या हुआ तुम्हीं पास हो मेरे जाने मन ,
तुम्हीं से है कायम ये जिन्दगी तुम्हीं असल में हो मेरे ही धन ,
नहीं तुम तो बाग़ में है खिजां हो अगर तू दिल का खिले चमन ,
तुम्हीं याक्बत का असास हो नहीं तुम तो चाँद में है गहन ,
ये ख्याल दिल में न लाओ तुम की लो देश की भी तुम आज सुध ,
यूँ सुना तो भरत ने यों कहा मैं करूंगा भाग से आज युद्ध .
                                         ( ८४ ) 
मैं तो जा रहूँ वन में अब मैं तो लेके राम को आउंगा ,
नहीं पानी तब तक मैं पियूंगा नहीं खाना तब तक खाउंगा ,
मेरा अजम रासिख आज तू नहीं लुट के आउंगा ,
मिले हक़ परसब्त को  हक़ सदा नहीं जुलम उन पे मैं ढाउंगा ,
ये कहा फिर भरत जी तो चल पड़े गए राजा दशरथ भी स्वर्ग में ,
हुआ संस्कार जब आख़िरी कहा राम के पास अब चले .
                                        ( ८५ ) 
की थी अब तो कैकेई भी दुखी उसे दिल ही दिल में था रंज भी ,
गई चुपके ही से भरत पे वह कहा मुझको है शर्मिंदगी  ,
मुझे माँ डाला हवस ही ने की न याक्बत की तो सुध रही ,
मुझे कर क्षमा मी लाडले मेरी है गुनाह की जिन्दगी ,
कहा भरत लाल ने मुझसे क्या तू तो जा कौशल्या से ले क्षमा ,
वाही रास्ता है निजात का है उसी में नहां बुरा भला .
                                            ( ८६ ) 
यूँ सुना तो कैकेई चल पड़ी गई फिर कौशल्या के वह करीब ,
नहीं आसमा पे नजर टिकी की निगाहें उनकी जमीन पे थीं ,
ज्यों ही देखा सीने से लग गई की कुर्वतें सभी मिट गईं ,
की था दिल कौशल्या का आयना की वह दोनों शीर औ शिकार हुईं ,
चले सब ही राम के पास फिर सभी भाई भ्रात और बंधुजन ,
की हरम था सारा ही साथ ही की वशिष्ठ गुरु भी चले थे वन .

 

1 टिप्पणी: