सोमवार, 19 जुलाई 2010

अधूरी कविता 1

यारो अब तक सुलझ सकी न मन की उलझन है ।
पागल लडकी है या लडकी का पागलपन है ।
मेरे घर के ठीक सामने वाला है इक घर ,
जिसको मैं देखा करता था बंद पड़ा अक्सर ,
करने लगा अचानक इक दिन वह स्पंदन है ।यारो..
कोई आता कोई जाता दिखती है हलचल ,
कल तक था खामोश वहां अब होता कोलाहल ,
खिड़की दरवाजों पर करती छुन -छुन चिलमन है ।यारो...
जब भी जाती नजर उस तरफ तो ऐसा लगता ,
जैसे कोई छिप छिप कर मुझको देखा करता ,
आखिर हुआ उजागर इक दिन सारा गोपन है .यारो...
छुपा -छपी का खेल खेलने वाली बाला थी ,
मुखड़े पर लावण्य देखने में मधुबाला थी ,
होती थी प्रतीत सादगी का विज्ञापन है । यारो...
यूँ ही इक दिन मेरे घर की कुंडी थी खडकी ,
खोला दरवाजा तो देखि सुन्दर सी लडकी ,
बोली दोनों हाथ जोड़कर ' अंकल बेलन है ? ' यारो...
पूरे घर में इधर -उधर सब बिखरा है सामान ,
बेलन कहाँ रखा ,मम्मी को नहीं ज़रा भी ध्यान ,
इसीलिए मम्मी ने भेजा लेने बेलन है । यारो ॥
पापा के कुछ मित्र शाम को आने वाले हैं ,
रुक सारा दिन कहीं फिर जाने वाले हैं ,
उन्हें डिनर का पापा जी ने दिया निमंत्रण है, यारो...

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