शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

मन ही मन 14

प्रतीक्षा कितनी अच्छी लगती थी तब /
प्रतीक्षा अब अच्छी नहीं लगती /
अब किसी की प्रतीक्षा भी तो नहीं ।

चिंगारी सी पैदा की थी तुमने /
जल रहा हूँ मैं सूखी लकड़ियों सा अब ।

रात दिन महसूस करता हूँ उसे /
उसके सिवा महसूस ही नहीं होता कुछ/
कुछ भी तो नहीं मैं ।

कितने व्यर्थ से लगे हैं /
दिन रात सुबह शाम /
इनके लिए किसी का होना /
कितना जरूरी है ।

हर एक लहर छोड़ जाती है /
किनारे पर दुःख /
किसी दिन खुद बहा भी /
ले जायेगी तूफ़ान में सब का सब।

जाकर भी कहाँ जा पायीं तुम /
यहीं तो हो हर पल /
न होकर भी मेरे साथ ।

कितनी भारी लगती है उदासी /
उस समय और भी /
जब उदासी नहीं होती .

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