गुरुवार, 22 जुलाई 2010

छोटे छोटे घर

बड़े -बड़े दरवाजों वाले छोटे -छोटे घर ।
जिनमें चलते -फिरते हरदम आते प्रेत नजर ।
आशंका से पुते हुए इन लोगों के चेहरे ,
प्रायः सोचा करते कोई आ ना जाए इधर ।
भीतर ही भीतर कितने हो चुके खोखले हैं ,
बाहर से दिखते हैं फिर भी इकदम ठोस मगर ।
होठों पर मुस्कान हमेशा कायम फीकी सी ,
आँखों में हर खाब है जैसे उजड़ा हुआ नगर ।
अविश्वास है फैला ऐसे ज्यों बिखरा कोहरा ,
दूर -दूर तक जिसमें पड़ती नहीं दिखाई डगर .

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