शनिवार, 17 जुलाई 2010

दोहे -३

देती है तारीफ़ अब रसगुल्लों का स्वाद ।
जिन्हें सुगर का रोग है वह इसके अपवाद ।
अखबारों में आजकल छपा -छपा निज नाम ।
तुकबंदी को कह रहे कविता राधेश्याम ।
शब्दों की जिनको नहीं थोड़ी भी पहचान ।
अपने मुख से कर रहे निज महिमा का गान ।
है तुम्हारे गाल पर जो खूबसूरत तिल ।
ले गया इक दिन चुरा कर मुझ से मेरा दिल ।
साडी पहने सिल्क की पश्मीने का शाल ।
सैंडिल ऊंची हील की हिरनी जैसी चाल
अन्दर से खोखला बाहर से है ठोस ।
देख मनुष्य के रूप को होता है अफ़सोस ।
मानव का है दोगला इस युग में व्यवहार ।
दिल के भीतर है जहर बाहर बाहर प्यार ।
मानव को है चाहिए यदि मानव से प्यार ।
दिल से उसको कीजिये बिना शर्त स्वीकार ।
पूर्ण समर्पण के बिना नहीं प्रेम का बोध ।
चाहे तो कर लीजिये इस पर यारो शोध ।
प्रेम बिना मिलता नहीं ह्रदय पर अधिकार ।
फीका -फीका बीतता खुशियों का त्यौहार ।
सदा नियंत्रित जो रखे होठों पर मुस्कान ।
चेहरे पर गंभीरता सज्जन की पहचान ।
आँखों से लुच्चा लगे चेहरे से मक्कार ।
ऐसों के संग दोस्ती करने पर धिक्कार .

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