कोई डाकिया चिट्ठी लेकर जब भी आता है ,
उसके प्रश्नों से बचने को वह कतराता है ,
आँखों से झर-झर झरने लगता सावन है ।
कितने ही मौसम बीत गए अनजानी यादों के ,
गाये ढेरों गीत विरह के सावन भादों में ,
तडपी सारी रात मीन सी किया क्रंदन है ।
सुबह शाम पूजा करती वह दत्त चित्त होकर ,
घंटों रहती ध्यान मग्न अपनी सुध बुध खोकर ,
माँगा करती हाथ जोड़कर प्रिय का दर्शन है ।
जब तक घर में रहती घर लगता भरा -भरा ,
जैसे सावन में लगता है सब कुछ हरा हरा ,
उसकी अनुपस्थिति में लगता बस सूनापन है ।
जब भी मन घबराने लगता एकाकीपन से ,
घंटों जाने कितनी बातें करती दर्पण से ,
करती क्वांरी संग ब्याहता ज्यों पति वर्णन है ।
ऑटो रिक्शा से प्रतिदिन वह जाती थी स्कूल ,
इधर -उधर की बातों में न करती वक्त फिजूल ,
ध्यान लगा कर मनोयोग से करती अध्ययन है ।
प्रतिदिन करती बात फोन पर नियमित वह मुझसे ,
दुनिया भर की ख़बरें सारी कह देती झट से ,
उसके होम वर्क में शामिल हुआ कनेक्शन है
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