शनिवार, 17 जुलाई 2010

दोहा -१०

चाटुकारिता से भरे सुनकर मीठे बैन ।
फूले फूले फिर रहे अफसर जी दिन रैन ।
केबिन पर पर्दा पड़ा जलती बत्ती लाल ।
ऊपर वाला जनता भीतर के सब हाल ।
टेबिल पर है लग गया फाइलों का अम्बार ।
श्रीमानजी क्या करें पहले है परिवार ।
नहीं किसी की सुन रहे श्रीमान फ़रियाद ।
इन्हें फर्क किस बात का हो कोई बर्बाद ।
बढ़ता जाता मेज पर फाइलों का अम्बार ।
सुबह से लेकर शाम तक लगा हुआ दरबार ।
सरे बाबू मौन हैं खोले कौन जुबां ।
न जाने किस बात पर बरस पड़ें श्रीमान ।
मन में अपने सैकड़ों कुत्सित लिए विचार ।
फिर भी वह हैं चाहते उन्हें करें सब प्यार ।
सूरत से मासूम पर साजिश के उस्ताद ।
जाने कितने कर दिये घर उनने बर्बाद ।
अपनी दौलत का उन्हें रहता बड़ा गरूर ।
लेकिन सबसे चाहते अपनी मदद जरूर ।
तेरे मेरे बीच में राष्ट बड़ा अजीब ।
दूर बहुत रहते मगर लगते बड़े करीब ।
दो दिन गर मिलते नहीं मन होता बेचैन ।
इधर उधर हैं ढूंढते ये बेचारे नैन .

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