सोमवार, 26 जुलाई 2010

तेरे हर ख़त का

मैंने इक -इक लफ्ज पढ़ा है तेरे हर ख़त का ।
जिनमें तुमने जिक्र किया है अपनी चाहत का ।
लेकिन बीच हमारे कितना बड़ा फासला है ,
नहीं दिखाई देता कोई रस्ता राहत का ।
तकदीरों का खेल समझकर सब कुछ सहना है ,
तन्हाई को बना लिया अब हिस्सा आदत का ।
मुस्काना चाहा तो आंसू मिले नसीबा में ,
बढ़ता गया खजाना पाकर तोहफा नफरत का ।
टूटा हुआ लिए दिल अपना एक खिलोना -सा ,
टुकडा -टुकडा ढूंढ रहा हूँ अपनी कीमत का .

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