रविवार, 18 जुलाई 2010

होंठ थे उसके सिले

डबडबाई थी नजर और होंठ थे उसके सिले ।
वह मेरे नजदीक आई लेके जब शिकवे गिले ।
कंपकंपाते जिस्म के संग चीखकर इक दम कहा ,
बेमुरव्वत ,बेवफा तेरे लिए सब कुछ सहा ;
किन्तु तूने दे दिये मुझको ग़मों के सिलसिले ।
ये बहारें ,ये फिजायें ,ये चमकते छंद तारे,
सब के रहते भी फिरे हम दरबदर मारे -मारे ;
खोज में तेरी मेरे हैं पाँव के तलुवे हैं छिले ।
रात दिन कैसे गुजारे हैं जुदाई में तेरी ।
तू न आया लौट कर लेने खबर अब तक मेरी ;
एक दम मुरझा गए हैं फूल खुशियों के खिले .

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