शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

मैं आवारा बदली थी

जब नीला था आसमान मैं आवारा बदली थी ।
फूलों के मौसम में मैं ,इक खिलती हुई कली थी ।
झरनों के सरगम में मेरे हंसने के ही स्वर थे ,
दीपक की लौ जैसे मेरे जलते हुए अधर थे ,
काजल की रेखाओं में मैं तिल तिल खूब जली थी ।
सागर के तट पर रहकर भी जन्मों की प्यासी थी ,
खुशियों के आँगन में मेरे छाई गहन उद्दासी थी ,
दिन महीने ,महीने वर्षों में मेरी उमर ढली थी ।
कल तक लगे जहां पर मेले आज वहां वीरानापन है ,
अपनों की आँखों में तिरता दीखता इक बेगाना पन है
होकर अब सुनसान पड़ी है कल तक जो आबाद गली थी .

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