शनिवार, 17 जुलाई 2010

कुछ ये भी

चाहे जितने भी रहो श्रीमान जी दूर ।
पास मेरे ही आओगे होकर के मजबूर ।
होकर के मजबूर हार कर अपने दिल से ,
जाने का न नाम कभी लोगे महफ़िल से ।
प्रायः होते ही रहे वैचारिक मतभेद ।
यदि गलत कुछ कह दिया व्यक्त किया न खेद ।
व्यक्त किया न खेद यही थी भूल हमारी ,
वर्ना सहते क्यों सदा तकलीफें भारी ।
मन के अन्दर प्रेम था पर बाहर था रोष ।
सच था यों संज्ञान में फिर भी थे खामोश ।
फिर भी थे खामोश झूठ खुद ही से बोले ,
पर समझा न कोई बन गए इतने भोले ।
प्रेम समर्पण चाहता स्वार्थहीन निष्पाप ।
बंधन को स्वीकारता बंध जाता मन आप ।
बंध जाता मन आप दासता इसमें कैसी ,
स्वयं नियंत्रित और से ये धड़कन जैसी ।
कोई किसी की याद में नहीं छोड़ता प्राण ।
पर रखता दिल में सदा उसी शख्स का ध्यान ।
उसी शख्स का ध्यान हार तेरी है भारी ,
भुला नहीं पाने की क्यों कर है लाचारी ।

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