शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

आंसू बहायें

बंद कमरे में रहें आंसू बहायें ।
बैठकर गजलें लिखें बिलबिलायें ।
आग लगती है कहीं लगती रहे पर ,
फोन नंबर जो मिलें उसको गुमायें ।
चीख होंठों से ही पहले घोट दें ,
एक कोने में खड़े बस बड़बड़ायें
क़त्ल हो जो सामने मुंह फेर लें ,
मुट्ठियाँ भीन्चें ज़रा सा तिलमिलाएं ।
गर कभी अखबार में छाप भी जाए हादसा ,
मजहबों में बाँट दें मातम मनाएं .

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