शनिवार, 17 जुलाई 2010

दोहे -7

जब से माँगा हो गया आपस का वव्हार ।
फीका फीका सा लगे दीपों का त्यौहार ।
एक तरफ है रौशनी तिमिर दूसरी ओर।
दीवाली का रूप ये मन देता झझकोर ।
कुछ बच्चे सहमे हुए खड़े हुए इक ओर ।
लालायित से देखते दीप जले चहुँ ओर ।
दुःख की छाया सुख की धुप ।
प्रभू कृपा के हैं दो रूप ।
दुःख में प्रभू की चाहना सुख में निज अभिमान ।
ऐसे में कैसे मिले खुशियों का वरदान ।
पीले पत्ते पद गए नईं कोंपलें शेष ।
जीवन का सच है यही बृक्ष देत उपदेश ।
आने की जो है ख़ुशी तो जाने का गम ।
वर्ना जीवन तो यही साँसों की सरगम ।
न आने की है ख़ुशी न जाने का गम ।
इससे जो निस्पृह रहे सच्चा साधक सम ।

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