शनिवार, 17 जुलाई 2010

दोहे -4

जब भी कोई आयना देखे बारम्बार ।
समझो उसको हो गया अवश्यमेव ही प्यार ।
दिल में अपने पालिए बड़े शौक से गम ।
पर बहने न दीजिये अश्कों को हर दम ।
जब भी दिल के द्वार पर दे कोई आवाज ।
धीरे .धीरे खोलिए रखिये दर की लाज ।
आखिर कैसे हम करें गैरों पर विशवास ।
जब अपनों ही से मिला गैरों जैसा त्रास ।
अपनी पत्नी छोड़ के धरे और का ध्यान ।
ऐसे कवि की कल्पना क्या कहिये श्रीमान ।
अपनों को दुत्कारते बेगानों से प्यार ।
बोलो सभ्य समाज का ये कैसा व्यवहार ।
बेगानों में ढूंढते अपनों सी पहचान ।
अपनों को जब कर दिया बेगाने श्रीमान ।
न ही ली उसने खबर न ही भेजा ख़त ।
फिर भी कम होती नहीं उसके प्रति चाहत ।
उस दिन से फिर न मिले जब से बिछड़े हम ।
इक दूजे से बेखबर किसे ख़ुशी किसे गम .

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