बुधवार, 21 जुलाई 2010

अधूरी कविता -4

जब से पाया यौवन ,आया शर्मीलापन है ,
दिन में कई -कई बार निहारा करती दर्पण है ,
कड़ी -कड़ी वह जाने किसका करती चिंतन है ।

दरवाजे से छिप -छिप कर वो देखा करती है ,
दूर -दूर तक जाने किसको खोजा करती है ,
किसके पीछे -पीछे पीछा करती चितवन है ।
जब भी आता कोई सामने झट छुप जाती है ,
खुद से करती बात यकायक चुप हो जाती है ,
करती यों व्यवहार झलकता बेगानापन है ।
गुड्डा -गुडिया कभी खेलती पढती दिन -दिन भर ,
बोले सबसे कभी प्यार से कभी लादे जमकर ,
उसके ऊपर केवल उसके मन का शासन है ।
बच्चों जैसी कभी ,कभी जिद करने लगती है ,
कोई डांट पिला दे तो फिर डरने लगती है ,
दूर -दूर रहती पकड़ो तो करती रोदन है ।
चाकलेट ,टाफी से उसको बड़ी मुहब्बत है ,
देने वाले की करती वह काफी इज्जत है ,
कर लेती खुश होकर उसका वह आलिंगन है ।
ढेरों करती बात पक्षियों से संकेतों में ,
दौड़ा करती संग तितलियों के वह खेतों में ,
ढूंढा करती फूल पत्तियों में अपनापन है .

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