शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

मन कब तलक बहलायेगा

चाँद के प्रतिबिम्ब से मन कब तलक बहलायेगा ।
उम्र मुट्ठी में पकड़ कर किस तरह रख पायेगा ।
एक दिन हो जायेगा जब स्वप्न भंग तेरा अचानक ,
अपनी ही परछाईं को न साथ अपने पायेगा ।
माना वैभव आज तेरे दर पे दस्तक दे रहा ,
और तू मदमस्त होकर आसमान छु ले रहा ,
किन्तु दौलत ने बताओ साथ हरदम कब दिया है ,
आदमी को आदमी से ही जुदा इसने किया है ,
फिर तेरा इसके प्रति मोह करना क्या उचित है ,
ये अमूल्य जीवन भी क्या पाया किसी ने अनवरत है ,
इसलिए जब उम्र के सोपान अंतिम तै करेगा ,
भीड़ में रहकर भी तू खुद को अकेला पायेगा ।
आज तू प्रमाद में यों खुद को ही भूला हुआ है ,
पाके बस इक तुच्छ सी उपलब्धि पर फूला हुआ है ,
किन्तु तूने ये न सोचा दृष्टि के कुछ पार भी है ,
देह की आसक्तियों में जिदगी की हार भिया है ,
इसलिए जब आईने से सामना होगा तेरा ,
अपनी ही सूरत से फिर कब तलक कतरायेगा ।
आज तू उड़ने लगा जैसे कोई परवाज है ,
आकांक्षाओं पर यूँ झपटता जैसे तू इक बाज है ,
नाप लेना चाहता है एक पल में आसमां,
मार देना चाहता है अपनी अंतरआत्मा,
किन्तु जब उड़ता हुआ एक दिन थक जायेगा ,
एक क्षण में इस जमीं से आ के तू टकराएगा ।
इसलिए कहता हूँ तुझसे खुद को पहचानो जरा ,
लक्ष्य अणि जिन्दगी का देख सन्धानो जर ,
और अपने आप को कुछ इस तरह मुखरित करो ,
चारों दिशाओं में तेरी ही कीर्ति का यशगान हो ,
वर्ना हाथों में तेरे वक्त फिर न आएगा ,
शेष कुछ भी न बचेगा उम्र भर पछतायेगा .

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