बुधवार, 7 जुलाई 2010

कोई फर्क नहीं होता है

मंदिर और मस्जिद में कोई फर्क नहीं होता है /
सिवाय एक मूर्ति के /
क्यों कि /मूर्ति कि उपस्थिति /अनुपस्थिति /
परिभाषित करती है ढांचों को /
और ढाँचे समय सापेक्षित ,परिस्थितिजन्य होते हैं
जो जन्मते हैं /संस्कृतियाँ /निरपेक्ष रहतीं हैं मूर्तियाँ /
पर राजनीति में मूर्तियाँ /शतरंज कि गोटियाँ होती हैं /जो समय,स्थानानुसार ,घटनावश/
अपनी चाल बदलतीं हैं ./और चलने वाले होते हैं लोग/
जो ठेकेदार होते हैं /धर्म के ,समाज के , देश के /
इसीलिए आज जरुरत है /मूर्तियों कि सुरक्षा कि,खोज की/
अस्तु लोग खोज रहे हैं ,खोद रहे हैं /
मूर्तियाँ दर मूर्तियाँ /ताकि निर्धारित कर सकें ढांचा /
ढांचा कोई भी हो /पर महत्वपूर्ण होती हैं मूर्तियाँ /
जो भीतर होती हैं /इसीलिए /
मुझे भी तलाश है /एक ऐसी मूर्ति की /जो निर्धारित कर सके मेरा ढांचा ./

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें