गुरुवार, 15 जुलाई 2010

मैं रात भर सुलगता रहा

मैं रात बहर सुलगता रहा /
ढूंढता रहा वेदना का अर्थ /
बंद कमरे की घुटन के दर्पण में /
उकेलता रहा हर एक क्षण /
तुम्हारे पहलू में गुजरे हुए वक्त का /
बदलता रहा करवटें फूटते रहे फफोले /
तुम्हारे गर्म शीशे की तरह टपकते हुए /
आंसुओं से उभर आये मेरे जिस्म पर /
तुम्हारे दहकते हुए माथे पर बंधा रूमाल /
उपेक्षा के हाथों घोटता रहा मेरा दम/
कुचलते रहे सहानुभूति भरे शब्द /
कांपते हुए शुष्क होंठों के बीच /
होती रहीं घायल धडकनों की आवाज /
टकराकर खामोश दीवारों से /
गूंजता रहा साँसों का शोर /
चीखता रहा मौन /
पहल करे बोलना दोनों में कौन .

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