सोमवार, 12 जुलाई 2010

कितनी नीरवता है

घर मेरा है मैं घर में हूँ फिर भी कितनी नीरवता है ।
अपने ही क़दमों की आहट सुनकर मुझको डरलगता है ।
चारों तरफ उदासी घर में फैली गहरी खामिशी है ,
दीवारों के इक घेरे में पल पल मेरा दम घुटता है ।
घुमा करता अन्दर बाहर बेचैनी को साथ लिए ,
जैसे वीराने में कोई चम्गादर घूमा करता है ।
जब भी अपना चेहरा देखूं भूले से भी दर्पण में ,
बड़ी भयानक दिखने लगती तन की साडी सुन्दरता है ।
सारी रात सताती मुझको यादें उसकी यमदूतों सी ,
प्राण बचाकर भागा करती मन की सारी निष्ठुरता है .

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