शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

मन ही मन -12

तुम्हारे होठों से पिया था अमृत /
घुल गया जिन्दगी में /
विष की तरह /मरने को ।

पत्तियाँ होती ही हैं झरने के लिए /
ठूंठ रहते खड़े हरे होने की आस में ।

अभी -अभी कोयल कह कर गई है /
वसंत फिर आयेगा /
आखिर कितने बसंत ।

कितना शंकित रहता है प्यार /
पाने के बाद /पाने के पहले /
कितना विशवास था ।

कितनी तपती है जमीन /
दिन भर जून में /
जैसे तपती है देह विरह की आग में ।

एक नजर ही तो होती है /
बांधे रहती है कच्चे धागे सा /
रिश्तों को .

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