गुरुवार, 15 जुलाई 2010

मन ही मन -2

उसके होठों पर अमृत /
ही अमृत फैला था /
मैं भला कैसे पी सकता था /
विषैले होठों से ।

हर तरफ उसे ही /
महसूस करना /
साँसों में उसकी ही गंध /
मगर सांस भी तो सांस भर है ।

हर तरफ एक मधुर संगीत /
फैला है दिगदिगान्तर /
भ्रम ही तो है सुनाई देना /
अपने सिवा ।

घाव भरने से पहले /
अभी दे सकते हो /
नया घाव /
घावों के लिए भी तो /
चाहत जरूरी है ।

ऊबड़ खाबड़ जमीन पर /
लहुलुहान होते नंगे पाँव /
की तकलीफ हर लेता है ये प्यार /
अनास्थिया सा ।

आग तो आग है /
भीतर भी आग /
बाहर भी आग /
आग ,ठंडी नहीं होती .

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