गुरुवार, 15 जुलाई 2010

मन ही मन -4

बस्तियां उजड़ जातीं हैं /
लोग बसाने के जड़ दो जहद में /
भूल जाते हैं /
उजाड़ने वाले का नाम ।

अपना होकर भी अपना न था /
किसी का होना तो होना ही न था ।

अँधेरे में चमकती हैं /
दीवारें घर की अकेले में /
हर तरफ झिलमिला उठता है /
तुम्हारे साथ गुजारे हुए पलों का ।

गुनगुनाना कोई गीत /
वक्त बेवक्त /
अपने होने के अहसास को/
खुद अहसास कराता है ।

जो कुछ न कर सका /
न जाने क्यों /
खारिज कर देता है /
कुछ भी किये को ।

यह पागलपन नहीं तो क्या है /
हर एक चेहरे में उसी को /
तलाशना जो /
दूसरा हो ही नहीं सकता .

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें