गुरुवार, 15 जुलाई 2010

मन ही मन -5

हर रंग फीका है /
उसके रंग के आगे /
पता नहीं वैसा रंग /
कौन सा रंग है ।

जितना भी भरा होता है /
खाली रह जाने को /
कर नहीं परा है पूरा कभी ।

फैला हुआ अकेलापन /
कभी इतना गहरा हो जाता है /
कि उफनने लगता है /
लावा की तरह भीतर ही भीतर ।

गीली लकड़ियों की तरह /
धुधियांती रहती हैं /
जब तक कि सूख नहीं जाती /
जलने के लिए ।

सुबह शाम कहाँ एक सी होती है /
हमारी तुम्हारी तरह ।

क्या फर्क पड़ता है /
पात्र की तरह /
तुमने मुझे भरा /
या खाली किया ।

न तुम तस्वीर थीं /
न तस्वीर तुम/
तुमसे घर था /
तुम नहीं घर से .

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