सोमवार, 5 जुलाई 2010

लोग समझते हैं

इतनी आसां नहीं जिन्दगी जितना लोग समझते हैं ।
यहाँ समुन्दर कितने सारे प्यासे होंठ तरसते हैं ।

दिन उम्मीदें लेकर आता रात निराशा लाती साथ ,
जब भी कदम बढाओ आगे पीछे कदम खिसकते हैं ।

मन की सूखी धरती पर जब चाह के बादल घिरते हैं ,
लगता हरपल अब बरसेंगे लेकिन नहीं बरसते हैं ।

अपना सबकुछ खोना पड़ता वफ़ा निभाने की खातिर,
इक बेचैनी लिए हमेशा सारी उमर तड़पते हैं ।

आने वाले अच्छे कल के खाब सजाये आँखों में ,
जाने वाले कल के दुःख को विदा ख़ुशी से करते हैं ।

इक इक कर कम होते जाते पैसे सारे दामन के ,

शायद इक के दो हो जाएँ हम उम्मीदें करते हैं .

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