रविवार, 4 जुलाई 2010

वक्त खिसकता हुआ चला है

वक्त खिसकता हुआ चला है ।
सुबह का सूरज शाम ढला है ।
जीने को तो सब जीते हैं ,
जीवन जीना मगर कला है ।
अच्छा बुरा वही जाना है ,
अपना जिसमें हुआ भला है ।
मंजिल पर पहुंचा वह राही ,
कदम जमाता हुआ चला है ।
उसका जीवन हुआ सार्थक,
जिसका दामन भर उजला है ।
उसका लेखा क्या रखना है ,
जिसका अगला ना पिछला है ।
प्यार का सागर भारी गहरा ,
लेकिन दिखता भर छिछला है ।
दिल कितना भी पत्थर सा हो ,
अश्कों से हरदम पिघला है ।
जब भी आगे धूपचली है ,
पीछे साया सदा चला है ।
ऐसा हवं भला क्या करना ,
जिसमें अपना हाथ जला है .

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