सोमवार, 12 जुलाई 2010

सीधे सीधे चल

आड़े तिरछे चलने वाले सीधे सीधे चल ।
रस्ता सेज नहीं फूलों का सम्हल- सम्हल कर चल ।
इस दुनियां में हर वस्तु है क्षण भंगुर यारो ,
जो स्थिर है आज वही अस्थिर होना कल ।
अपने चेहरे पर इतने न तुम चेहरे डालो ,
इक दिन तुम जो भूल ही जाओ अपनी सही शकल ।
बड़े दर्प से आसमान में जो सूरज चढ़ता था ,
शाम हुई तो सबने देखा सागर गया निगल ।
कब तक यों ही खोये रहोगे तुम झूठे सपनों में ,
ऐसा न हो तुम पछताओ जाए वक्त निकल ।
श्रम की कीमत पहचानी है जिसने भी सचमुच में ,
उसने जाना कर्म किये न होता कोई सफल .

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें