लिए गोद में छोटा बच्चा रोती थी इक माँ ।
हाथ पसारे भीख मांगती होती थी इक माँ ।
कातर -कातर आँखों में से दर्द टपकता था ,
लाचारी ,बेबसी जुबां पर ढोती थी इक माँ ।
नौनिहाल की पूर्ण हिफाजत का मकसद लेकर ,
दरवाजे -दरवाजे बेदम होती थी इक माँ ।
फटेहाल खुद भूखी प्यासी पर आँचल भीगा ,
छाती से चिपका कर बच्चा सोती थी इक माँ ।
यों झिडकी दुत्कारें धक्के खाती फिरती थी,
पर आँखों में खाब संजोये होती थी इक माँ ।
माँ तो आखिर माँ होती है ज्यों तेरी मेरी माँ ,
किन्तु गैर का पाप प्रेम में ढोती थी इक माँ ।
सदियों से इक माँ की हालत कभी नहीं बदली ,
घर के भीतर बाहर बूढी होती थी इक माँ .
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