मंगलवार, 6 जुलाई 2010

सोचो सोचो

सोचो सोचो कुछ तो सोचो वक्त गुजरता जायेगा ।
इंसानों के रिश्तों को अब आखिर कौन निभाएगा ।
भाई -बहिन के रिश्ते भी अब तोड़ रहे हैं सीमायें ,
अपने ही बच्चों की दुश्मन बन जाती हैं माएं ,
पागल होते लोगों को कोई कैसे समझाएगा ।
भोली भाली सूरत के पीछे हैवानी चेहरे हैं ,
सुनने वाला कोई नहीं मानो सबके सब बहरे हैं ,
आँखों पर परदे डाले हैं इनको कौन हटाएगा ।
कितना जहरीला मौसम है जहर नसों में भिदताहै ,
इंसानों ,हैवानों का क्यों भेद नहीं अब मिटता है ,
इंसानों को इंसानों सा आखिर कौन बनाएगा ।
चारों तरफ अँधेरा फैला नहीं सुझाई देता कुछ ,
मंजिल जाने कहाँ खो गई कदम नहीं उठते है अब ,
इस अंधियारे में उजियारा बोलो कौन दिखाएगा .

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